मंत्र

ॐ दीप ज्योति परब्रह्म

दीपं सर्वे मोहनं।

दीपं ना सजते सर्वं संध्या

दीपं सरस्वत्यम॥

ॐ शांति: शांति: शांति:

ॐ परब्रह्म का प्रकाश है

यह अज्ञान का अंधकार दूर करता है

केवल यह प्रकाश ही अंधकार दूर करता है

ॐ दीप बुद्धि और ज्ञान की ज्योति है

ॐ शांति: शांति: शांति:

मन्त्र महान स्पंदन और शक्तिशाली आध्यात्मिक ऊर्जा-सम्पन्न शब्द हैं।

एक भजन में कहा गया है : "हम शब्दों के माध्यम से ही लेन-देन करते हैं। हम भावनाओं का संप्रेषण और अर्जन शब्दों द्वारा ही करते हैं।"

प्रत्येक शब्द का अपना स्पन्दन होता है और जब बोला जाता है, इसका अपना अर्थ और स्पन्दन के अनुरूप ही प्रभाव होता है। मैत्री और विनम्र भाव वाले शब्द जैसे "क्या आप मेरे ऊपर यह कृपा करने का इतना कष्ट और करेंगे!" बिल्कुल ही भिन्न प्रतिक्रिया होगी, जैसे आक्रामक शब्दों में कहते हैं "अब, जैसा मैं कहता हूं, वैसा ही करो"। व्यक्ति, स्थान, समय और परिस्थिति सभी समान हैं, जैसे मुख, जिह्वा और भाषा। अन्तर मात्र शब्दों में ही है।

नक्षत्र संसार में ही संप्रेषण के लिए कुछ खास शब्द जरूरी हैं और जैसा हमारे संसार में है, वैसा ही कुछ नियमों का पालन होना भी आवश्यक है। यदि हम किसी को दूरभाष (टेलीफोन)करना चाहते हैं और यदि हमारा या दूसरे व्यक्ति का टेलीफोन काम नहीं कर रहा है तो कोई बातचीत नहीं हो सकती। अत: संप्रेषण के लिए मूल आवश्यकता यह है कि भेजने और प्राप्त करने वाला स्थान दोनों ही ठीक तरह से क्रियाशील हों। किन्तु एक और शर्त भी पूरी करनी है। यदि एक व्यक्ति द्वारा बोले जाने वाली भाषा दूसरा व्यक्ति नहीं समझ सके तो संवाद नहीं हो सकता, चाहे दोनों टेलीफोन काम कर रहे हों।

पशुओं की भी अपनी 'भाषा' होती है। उदाहरण के लिए, मछली एक-दूसरे के साथ बिना शब्दों के संवाद करती है किन्तु मस्तिष्क ऊर्जा तरंगों के सीधे संचार द्वारा ही। यदि हम मछलियों के एक झुण्ड को देखें तो हमें यह अत्यन्त विस्मयकारी और लगभग समझ में न आने वाला होता है कि वे कितनी पूर्णता से अपनी गतिविधियों का समन्वय करती हैं। वे अत्यन्त स्वतन्त्रता से तैरती हैं, लगभग बिना भिड़े एक साथ और सही ढंग से एक ही दिशा में मुड़ जाती हैं।

अत: प्रत्येक स्तर पर कोई ऐसी भाषा होती है जो संवाद का प्रयोजन पूरा करती है।

जैसा पहले भी उल्लेख किया गया है मन्त्र उन शब्दों की एक शृंखला है जो अपनी सम्पूर्णता में एक सार्थक स्पन्दन के साथ एक ध्वनि का रूप निर्माण करते हैं। शब्दों का अर्थ ध्वनि है और ध्वनि स्पन्दन उत्पन्न करती है। स्पन्दन शक्ति है - सर्व व्यापक, सृजनात्मक शक्ति जो गति और प्रतिध्वनि उत्पन्न करती है। ऊर्जा का अर्थ है जीवन, और जहां जीवन है वहां सृजनात्मकता भी है।

चराचर जगत में शब्द और ध्वनि सर्वाधिक दृढ़ शक्तियां हैं। कई लोग विश्वास करते हैं कि प्रेम में बहुत शक्ति होती है किन्तु यह गलत है। सांसारिक प्रेम बिल्कुल कमजोर और सनकी है। किन्तु शब्द बहुत शक्तिशाली है। शब्द व्यक्ति को खुशी या दु:खी बना सकते हैं। वे प्रेम उत्पन्न कर सकते हैं या इसको नष्ट भी कर सकते हैं।

श्री महाप्रभू ने कहा था : "आपके होठों से शब्द ऐसे निकलने चाहिए जैसे सुगंधित पुष्प झर रहे हों।" एक कविता में कहा गया है : "सद् प्रयत्न करो कि आपके शब्दों से सभी प्रसन्न रहें। अपने द्वारा शांति और सुव्यवस्था को स्पंदित होने दो और आपके ही माध्यम से उसका प्रसार भी हो।"

किसी का अच्छा बोलने में कुछ खर्च नहीं होता है। किन्तु एक कठोर या बुरा शब्द काफी महंगा पड़ सकता है। अत: हमारे लिए केवल यही लाभदायक होगा कि हर परिस्थिति में विनम्रता और मित्रता से ही बोलें। यदि यह असंभव लगता हो तो चुप रहना ही बेहतर है। हमें अपने हृदय में प्रत्येक अपने विचारों पर इन्हें बोलने से पूर्व अच्छी तरह से सोचना चाहिए क्योंकि इसके बाद पृथ्वी पर कोई शक्ति नहीं है जो इनको वापस ला सके। एक कहावत है : "तीन वस्तुएं वापस नहीं आती - कहे हुए शब्द, बन्दूक से निकली गोली और शरीर से निकली आत्मा।"

मन्त्र शब्द के दो अक्षरों का अर्थ 'मन्' (दिमाग) और 'त्र' (स्वतंत्रता) है। मन्त्र वह ध्वनि है जो मन को भय, निर्भरता और दु:ख से स्वतन्त्र कर सकती है। एक बार मन स्वतन्त्र हो जाता है तब अन्य समस्याएं स्वत: सुलझ जाती हैं, क्योंकि सबसे बड़ी समस्या स्वयं मन ही है। मन चंचल है और यह निरन्तर अनेक विचारों से घिरा रहता है। नित्य के आपाधापी भरे जीवन और सांसारिक समस्याओं के कारण हमें ईश्वर के संबंध में विचार करने का समय ही नहीं मिलता। मन्त्र मन को शांति देता है और हमारे विचारों का मार्गदर्शन करता है।

अक्षर 'त्र' का एक अन्य अर्थ - 'पूरा करना (भरना)' है। किसी प्यासे की आवश्यकता को एक गिलास पानी संतुष्ट कर सकता है। मन को त्रस्त करने वाली यह कौनसी प्यास है? इसे कैसे बुझाया जाये? मन किस तरह बंधा हुआ है और यह स्वयं से किस तरह अलग हो सकता है?

आत्मा, हमारा आन्तरिक स्व, ब्रह्माण्ड स्व का सार है, जिसकी प्रकृति महाआनन्द, परमानन्द है। अत: प्रत्येक व्यक्ति की सर्वाधिक आन्तरिक विशिष्टता विश्व आत्मा के एक अंश के रूप में आनन्द, परमानन्द ही है। आत्मा पैदा नहीं होती, यह अमर है। आत्मा, हमारा सत्य स्व, सत-चित-आनन्द है। हमारी आत्मा की न बुझने वाली प्यास इसी की चाहना करती है कि स्वयं को इस आनन्द में पूरी तरह आत्मसात कर लें। शांति केवल तभी मिल सकती है जब यह आनन्द में आत्मसात हो जाती है। हम अभीष्ट जल तक पहुंच सकें, इससे पूर्व हमें मिट्टी और कंकरों को दूर करने के लिए कठोर परिश्रम करना होगा। ये बाधाएं रोजाना की कठिनाइयां और समस्याएं हैं, जिनका हमें सामना करना होता है। मन्त्र हमें दैनिक चिन्ताओं और समस्याओं, बीमारियों और दुर्भाग्यों से निबटने में सहायता कर सकते हैं। मन्त्र हमें आनन्द-अनन्त परमानन्द के अनुभव की ओर ले जायेगा।

योग सर्व ज्ञान का आधार है। योग का अर्थ प्रकाश (ज्योति), चेतना और अस्तित्व है, जो सदैव था, सदैव है और सदैव रहेगा। वे सभी जो दृश्य और अदृश्य हैं, योग के सिद्धान्त से सुव्यवस्था और सन्तुलन में जुड़ जाते हैं। यह वह शक्ति है, जो ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञान के उद्देश्य को जोड़ती है। योगियों और ऋषियों ने ध्यान में ज्ञान का पता लगाया और इस ज्ञान का विस्तार कर, मानवता कल्याण के लिए सौंप दिया। संस्कृत ग्रन्थों के अक्षरों का पता भी ध्यान में ही लगाया गया था और इन सभी का ब्रह्माण्ड के एक खास स्तर पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। संस्कृत मन्त्रों जिनका आज हम उपयोग करते हैं, ये योगियों के आध्यात्मिक कार्यों से उद् भूत हैं। यही कारण है कि मन्त्रों का प्रभाव मूल संस्कृत भाषा में किसी अन्य भाषा से अधिक होता है। संस्कृत के अक्षर देवनागरी के रूप में जाने जाते हैं (देव का अर्थ 'ईश्वर' और नागर का अर्थ 'नागरिक')। संस्कृत 'देवों की लिपि' है। इसका तात्पर्य यह है कि यह भाषा विश्व के प्रारम्भ होने के समय से ही अस्तित्व में है।

मन्त्र कई प्रकार के हैं :

  1. भजन (आध्यात्मिक संगीत)

    भजन आध्यात्मिक बुद्धि और स्पष्टता का संचरण करता है। भजन गायन गायक और श्रोताओं दोनों को प्रेरित करता है। भजन चेतना को शुद्ध, भावनाओं को उत्तम और भक्ति को जाग्रत करते हैं।

  2. कीर्तन (गीत में ईश्वर के नाम को दोहराना)

    मन्त्र के इस खास रूप का अभ्यास हमारे भावनात्मक पक्ष से विशेष रूप से संबंधित है। प्रेम से परमात्मा का नाम दोहराये जाने से एक दृढ़ आध्यात्मिक ऊर्जा उत्पन्न होती है और यह चेतना को शुद्ध करती है। तथापि सिद्धान्त रूप से कीर्तन 5-10 मिनट से ज्यादा नहीं करने चाहिए, क्योंकि जब ये बहुत अधिक देर तक और बहुत अधिक उल्लास में किए जाते हैं तब कीर्तन करने से अत्यधिक भावना उत्पन्न हो जाती है, जो अवास्तविकता और भाव विभोरता की स्थिति तक पहुंचा सकती है।

  3. प्रार्थना

    प्रार्थना मन्त्र का एक समारोहगत प्रकार है। यह "यह ईश्वर के साथ संवाद" है और स्वतन्त्र रूप से या प्रात:कालीन प्रार्थना, सायंकालीन प्रार्थना, श्रृंगार जैसे विशेष अवसरों के लिए तैयार पाठ से किया जा सकता है। प्रार्थना में हम ईश्वर की मौजूदगी बहुत स्पष्ट रूप में अनुभव करते हैं। प्रार्थना हमें अपनी समस्याओं से उबरने, हमारी आध्यात्मिकता विकसित करने तथा स्वयं में और ईश्वर में विश्वास बढ़ाती है।

  4. स्वास्थ्यप्रद मन्त्र

    मन्त्र का अन्य प्रकार रोग हर मन्त्र है। नाडिय़ों या चक्र में अव्यवस्था या रुकावटें बीमारी के रूप में मानव शरीर से प्रकट होती हैं। ये केन्द्र स्पन्दन से, अर्थात् शब्दों से प्रभावित होते हैं। इस प्रकार, मन्त्र का स्पन्दन भी एक सुखद, सुव्यवस्थित रोग हरण प्रभाव शारीरिक रूप पर डालता है। तथापि, रोग हरण मन्त्र का केवल पूर्ण रूप से तभी प्रभाव पड़ता है, जब कुछ विशेष शारीरिक और मानसिक अनुशासन का अनुसरण किया जाता है। इसका दुरुपयोग रोकने के लिए इन मन्त्रों को दीक्षित लोगों द्वारा मौखिक रूप से कह दिया जाता है और लिखकर नहीं देते।

  5. आध्यात्मिक मन्त्र

    एक आत्म अनुभूत गुरू अपने शिष्य को एक प्रभावी आध्यात्मिक मन्त्र देता है। गुरू इस मन्त्र को उन्हीं शिष्यों को देता है, जो अपने आध्यात्मिक विकास के लिए गंभीरतापूर्वक कार्य करते हैं और मोक्ष के लिए प्रयासरत रहते हैं। मन्त्र एक मन्त्र दीक्षा कार्यक्रम में दिया जाता है। एक आध्यात्मिक मन्त्र हमें आध्यात्मिक पथ का मार्गदर्शन करता है, हमारे ध्यान और एकाग्रता को गहन करता है और हमें आन्तरिक आशंकाओं और संदेहों से निजात दिलाने में सहायता करता है। यह दबाव चिन्ता और मन असन्तुलन व कठिन जीवन परिस्थितियों में भी बहुत लाभदायक होता है।

    मन्त्र आध्यात्मिक आकांक्षी के लिए एक प्रकाश पुंज के समान है, जो अज्ञान के अंधकार में पथ को प्रकाशित करता है। यह सामथ्र्य का एक महान स्तम्भ है जो हमें असहाय या परित्यक्त अवस्था में संरक्षण और सहायता देता है। मन्त्र हमारे ध्यान की 'आत्मा' है। मंत्र बिना ध्यान निष्फल है। मंत्र बिना ध्यान आत्मा बिना शरीर के समान है।

  6. बीज मंत्र

    लम्बे और लगातार अभ्यास के बाद शिष्य गुरू द्वारा प्रदत्त मंत्र के सार तक पहुंचता है। बीज मंत्र का प्रयोग क्रिया-अभ्यास और गहन ध्यान में होता है। बीज का अर्थ 'मूल' है। एक छोटे से अकेले बीज में एक पूरे वृक्ष का ढांचा समाया होता है। इसी प्रकार बीज मंत्र में सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड की शक्ति समाई होती है। मंत्र शक्ति ईश्वर की अनुभूति करा सकती है या नहीं यह पूर्ण रूप से केवल शिष्य पर ही निर्भर करता है। यदि हम एक कंकर से किसी खास निशाने पर मारना चाहते हैं तो हमारी सफलता हमारे समाथ्र्य, एकाग्रता और क्या करना है, इस वृत्ति पर निर्भर है। इसी प्रकार आकांक्षी का अटूट विश्वास, अनुशासन, प्रेरणा और भक्ति ही है जो निर्धारित करता है कि मंत्र फलीभूत होगा या नहीं।

एक बार एक गुरू छोटे गांव में पधारे, वहां दो किसानों ने उनसे प्रार्थना की कि वे उनको मंत्र दें। गुरुजी ने उत्तर दिया कि उनको मंत्र देने से पूर्व वे उनकी एक परीक्षा लेंगे। दोनों किसानों को उन्होंने एक-एक सोयाबीन का बीज दिया और कहा कि वे तब तक इसकी अच्छी देखभाल करें जब तक वे दुबारा नहीं आते।

एक किसान तुरन्त अपने घर लौट गया और सोयाबीन को एक टोकरी में रखकर मजबूती से एक ताले में बंद कर दिया। उसको यह सबसे सुरक्षित तरीका लगा कि गुरुजी से मिला कीमती उपहार ऐसे ही रख दिया जाय। किन्तु दूसरे किसान ने सोचा, "कौन जाने गुरुजी कब वापस आएंगे, तब तक हो सकता है यह बीज खराब हो जाए या खो जाए।" अत: उसने निश्चय किया कि इस बीज को बो दिया जाए। शीघ्र ही एक कोमल नया पौधा दिखने लगा जिसे उसने भली-भांति जल से सींचा और उसकी देखभाल की। खेती पकाई के समय उस पौधे से काफी सोयाबीन पैदा हुआ। क्योंकि गुरुजी गांव में वापस नहीं आए, किसान ने बीजों की फिर बुआई कर दी और अगली गर्मी में फसल पकाई के समय बहुत बड़ी मात्रा में सोयाबीन प्राप्त हुआ।

तीन लम्बे वर्षों बाद गुरुजी अंत में उस गाँव में वापस लौटे, जहाँ किसानों ने उनसे एक बार फिर मंत्र देने के लिए कहा। 'पहले तुम मुझे वह बीज लाकर दो जो मैंने तुम्हें सुरक्षित रखने के लिए दिया था' - गुरुजी ने उनसे कहा। जल्दी से एक किसान अपनी रत्नजडि़त टोकरी गुरुजी के सम्मुख ले आया, किन्तु जब उसने उसे, खोला तब उसके भीतर केवल एक मरा हुआ कीड़ा मिला जो उसमें घुस गया था, जो उस बीज को खा चुका था। दूसरा किसान वहां बैठा था और प्रतीक्षा कर रहा था। गुरुजी ने उससे पूछा "तुम्हारा बीज कहां है?" किसान ने उत्तर दिया : "आपका दिया हुआ बीज इतना अधिक गुणा हो गया है कि मैं यहां लाने में असमर्थ हूं, लेकिन आप मेरे साथ चलें तो मैं आपको वह बीज दिखा सकता हूं।" वह गुरुजी को भण्डार कक्ष ले गया, जहां फसल से 100 किलो सोयबीन संग्रहित था। इस किसान ने गुरू से मंत्र प्राप्त किया जबकि दूसरे को कुछ और अधिक समय प्रतीक्षा करनी पड़ी।

एक व्यक्ति जो मंत्र प्राप्त करता है, इसका अभ्यास किये बिना ही अपनी जेब में रख लेता है, वह उस किसान के समान है जिसने सोयाबीन को एक बक्से में बन्द कर दिया था, जहां उसे समय का एक कीड़ा खा गया। केवल अभ्यास ही किसी को गुरू बनाता है।

मन्त्र का प्रयोग जीवन की किसी भी स्थिति में किया जा सकता है और साथ ही रोजाना दिनचर्या में आराम और दिमागी शांति के लिए किया जा सकता है। इससे स्पष्टता और सार्थक सोच की योग्यता आती है। सभी वस्तुओं की तरह, हमें अत्यधिक और अति अभ्यास से बचना चाहिए और कभी किसी से बलात् (जबरदस्ती) नहीं करना चाहिए। एक योगी सभी वस्तुओं में उदारता का प्रतिनिधित्व करता है। जैसा कि भगवद् गीता में (6/16) में कहा गया है, "योग में निपुणता न तो अधिक खाने वाले को मिलेगी और न भूखे रहने वाले को, न उसे जो बहुत अधिक सोता है और बहुत कम सोता है।"

सिद्धान्त में, एक आध्यात्मिक मंत्र कभी किसी को नुकसान नहीं पहुंचाता। अधिक से अधिक यह प्रभावहीन रहेगा, यदि सही आन्तरिक वृत्ति का अभाव है या अभ्यास अनियमित है। मंत्र से हमारा आध्यात्मिक अभ्यास और हमारा जीवन सफल हो जाता है।

जब यह हो जाता है, तब हमारे हृदय में निवास करने के लिए कोई आता है जिसे कोई भी हमसे कभी भी दूर नहीं ले जा सकता। हम फिर कभी अकेले अनुभव नहीं करते। मंत्र जीवन की परिस्थितियों में हमारी रक्षा करता है। हम जब भी मंत्र को सोचते हैं या इसे बोलते हैं, तब यह हमको एक सार्थक स्पन्दन से भर देता है। इस प्रकार यह हमारे आन्तरिक स्व को शुद्ध कर देता है। बाहरी शुद्धिकरण के लिए हमें साबुन और पानी की आवश्यकता होती है। मन, चेतना और बुद्धि की शुद्धता के लिए मंत्र हमें पूरी संतुष्टि देता है। मंत्र की शुद्ध ऊर्जा मन और चेतना से सभी कलंक और दोषों को दूर कर देती है। यह हमारे स्व (आत्मा) और ईश्वर के बीच सम्पर्क स्थापित करने की संभावना देता है और हमें सर्वोच्च चेतना से मिला देता है।

श्री तुलसीदास जी ने कहा था : "यदि आप अपने अन्दर और बाहर प्रकाश ढूंढना चाहते हैं, तो अपनी जिह्वा पर दिव्य नाम (मंत्र) का उज्जवल मोती सजा लें।"