ज्ञान योग

ज्ञान का अर्थ परिचय से है। ज्ञान योग वह मार्ग है जहां अन्तर्दृष्टि, अभ्यास और परिचय के माध्यम से वास्तविकता की खोज की जाती है। ज्ञान योग के चार सिद्धांत हैं :

  1. विवेक-गुण-दोष का अन्तर कर पाना

  2. वैराग्य-त्याग, आत्म त्याग, संन्यास

  3. षट संपत्ति-छ: कोष, संपत्तियां

  4. मुमुक्षत्व-ईश्वर प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयास

विवेक-गुण-दोष का अन्तर कर पाना

विवेक ज्ञान का सही रूप है। इसे हमारी चेतना की सर्वोच्च सभा भी कहा जा सकता है। हमारी चेतना हमें बताती है कि क्या सही है क्या गलत है। अधिकांशत: हम भली-भांति जानते हैं कि हमें क्या करना चाहिये, तथापि हमारी अहंकारी इच्छाएं अधिक दृढ़तर रूप में प्रगट होती हैं और हमारे भीतर की अंतर्रात्मा की आवाज को दबा देती है।

वैराग्य-त्याग, आत्म-त्याग, संन्यास

वैराग्य का अर्थ किसी भी सांसारिक सुख या स्वामित्व के लिए इच्छा को त्याग कर आन्तरिक रूप से स्वयं को मुक्त कर लेना है। ज्ञान योगी ने यह अनुभव कर लिया है कि सभी सांसारिक सुख अवास्तविक हैं और इसलिये मूल्यहीन हैं। ज्ञान योगी अपरिवर्तनकारी, शाश्वत, सर्वोच्च, ईश्वर को खोजता है। इस पार्थिव शासन की सभी वस्तुएं परिवर्तनशील हैं और इसीलिए अवास्तविकता का रूप हैं। वास्तविकता है आत्मा, दिव्य आत्मा, जो अनश्वर, शाश्वत और अपरिवर्तनीय है। आत्मा आकाश से तुलनीय है। आकाश सदैव आकाश है - कोई इसे जला या काट नहीं सकता। यदि हम दीवार बना देते हैं तो हम एकाकी "व्यक्तिगत" हिस्से सृजन करते हैं। तथापि आकाश इस कारण स्वयं को नहीं बदलता और जिस दिन दीवारें हटा ली जाती हैं उस दिन केवल अविभक्त, असीम आकाश शेष रह जाता है।

षट संपत्ति-छ: कोष, संपत्तियां

ज्ञान योग के इस सिद्घान्त में छ: सिद्धान्त सम्मिलित हैं :

  • शम-इन्द्रियों और मन का निग्रह।

  • दम-इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण। निषेधात्मक कार्यों से स्वयं को संयमित करना - जैसे चोरी करने, झूंठ बोलने और निषेधात्मक विचार।

  • उपरति-वस्तुओं से ऊपर उठना।

  • तितिक्षा-अटल रहना, अनुशासित होना। सभी कठिनाइयों में धैर्य रखना और उन पर विजय प्राप्त करना।

  • श्रद्धा-पवित्र ग्रन्थों और गुरू के शब्दों पर विश्वास और भरोसा रखना।

  • समाधान-निश्चय करना और प्रयोजन रखना। चाहे कुछ भी हो जाये हमारी अपेक्षाएं उसी लक्ष्य की ओर निर्धारित होनी चाहिये। इस लक्ष्य से हमें अलग करने वाला कोई भी नहीं होना चाहिये।

मुमुक्षत्व - ईश्वर प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयास

मुमुक्षत्व हृदय में ईश्वर की अनुभूति और ईश्वर के साथ समाहित हो जाने की ज्वलन्त इच्छा ही है। सर्वोच्च और शाश्वत ज्ञान ही आत्मज्ञान, अपने सत्य स्व-आत्मा की अनुभूति है। स्व-अनुभूति यह अनुभव है कि हम ईश्वर से भिन्न नहीं हैं, बल्कि ईश्वर और जीवन सब कुछ एक ही है। व्यक्ति को जब यह अनुभूति हो जाती है, तब बुद्धि के कपाट खुल जाते हैं और वह परम सत्ता हो जाता है। सर्व सम्मिलित प्रेम हमारे हृदय में भर जाता है। यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जो भी कुछ अन्य लोगों को दु:ख देते हैं, अन्ततोगत्वा उससे हमें भी हानि होती है, इसलिये अन्त में हम समझ जाते हैं और अहिंसा के शाश्वत भाव की आज्ञा पालन करते हैं। इस प्रकार ज्ञानयोग का मार्ग भक्ति योग, कर्म योग और राजयोग के सिद्धान्तों से जुड़ जाता है।