उपवास

उपवास करने के दो मुख्य कारण हैं :

  1. संकल्प (इच्छा) शक्ति और आध्यात्मिकता का विकास।

  2. इस कारण इसका संबंध स्वास्थ्य से है, जैसे :

    • शरीर का शुद्धिकरण और विष-रहित करना

    • वजन कम करना

    • थकान और अनिद्रा की दुरावस्थाएं कम करना

    • आन्तरिक संतुलन और सुव्यवस्था की स्थिति प्राप्त करना

लम्बे उपवास किसी की देख-रेख में ही करने चाहिए। आध्यात्मिक उपवास किसी गुरु के मार्गदर्शन में करना चाहिए, और शारीरिक लाभ के लिए उपवास किसी चिकित्सक की निगरानी में ही करें।

यहां हम प्राथमिक रूप में उपवास के प्रथम प्रकार पर ही प्रकाश डालेंगे- व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में सहयोग के लिए उपवास। यदि आप स्वास्थ्य या वजन घटाने के उद्देश्य से उपवास करना चाहते हैं तो चिकित्सा-संबंधी अनुशंसा के अनुसार किसी भी समय कर सकते हैं। तथापि, जब आध्यात्मिक विकास के लिए उपवास करते हैं, इसके कुछ नियमों और उप-नियमों का पालन करना होगा। आध्यात्मिक उपवास में व्यक्ति का मानसिक रुझान और उपवास के दिनों की तैयारी व संरचना अधिक महत्त्व की बातें हैं। सचेत रहते हुए किसी भी कार्य का मन और मनोभावों पर, बिना सोचे-समझे किए गए किसी भी कार्य की अपेक्षा अधिक प्रभाव होता है, आध्यात्मिक शिक्षु के लिए उपवास एक या दो समय का भोजन न करना ही नहीं है अपितु सब बातों के अतिरिक्त इसका अर्थ बुरी आदतों, निषेधात्मक/नकारात्मक गुणों और विचारों पर सफलता पाना और स्वयं को शारीरिक और मानसिक रूप से किसी भी अनावश्यक कार्य-कलाप से संयमित रखना है। उपवास का दिन सचेतन, स्वार्थहीन, शारीरिक और मानसिक त्याग का होना चाहिए। यदि सभी लोग सप्ताह में एक दिन शाकाहारी के रूप में रहें और उपवास करें तो भूख की समस्या और कई स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएं आज ही संसार में सुलझ सकती हैं।

उपवास का कोई धार्मिक आधार नहीं है, फिर भी यह आत्म-अनुशासन और अधिक आत्मज्ञान प्राप्त करने के अवसर का प्रशिक्षण है। हम उपवास करके अपनी आन्तरिक संकल्प शक्ति को मजबूत करते हैं और इसके माध्यम से संसार में अपने जीवन का बेहतर प्रबन्ध कर सकते हैं। हम अपने गहनतम, अन्तरतम विचारों को जान जाते हैं और जो भी कुछ करना चाहते हैं उसको दृढ़तापूर्वक करने की योग्यता भी प्राप्त कर लेते हैं। योग के आकांक्षियों के लिए आत्म निर्धारित कार्य पूर्ण करने की योग्यता का विकास करना विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वे इसके बिना किसी आन्तरिक 'विवाद' (उहापोह) के नित्य के अभ्यासों को नियमित रूप से कर सकते हैं। उपवास से हम भावुकता और सहजता प्राप्त करते हैं एवं स्वयं को कुछ भौतिक स्तर से ऊपर उठा लेते हैं और सूक्ष्म तत्त्वों और क्षेत्रों से अपने सम्पर्क को सघन कर देते हैं। इसके द्वारा हम ब्रह्माण्ड शक्ति के स्पन्दन और प्रभावों को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं।

जिस दिन हमें उपवास करना चाहिए, उसका निर्धारण नक्षत्रों की स्थिति और चन्द्रमा की कलाओं से किया जाता है। नक्षत्रों का हमारे जीवन पर अत्यधिक प्रभाव होता है किन्तु चन्द्रमा की परिवर्तनशील कलाओं का ब्रह्माण्ड में ऊर्जा के प्रवाह पर और भी अधिक प्रभाव पड़ता है। ब्रह्माण्ड में, दो विशाल शक्तियां पृथ्वी को प्रभावित करती हैं- सूर्य की शक्ति और साथ में चन्द्रमा की शक्ति भी। सूर्य चेतना का प्रतीक है और चन्द्रमा मनोभावों व विचारों का। मनोभाव चेतना से हजारों गुना दृढ़तर हैं। ये वे ऊर्जाएं हैं जो विश्व में परिवर्तन लाती हैं और विश्व को चलाती हैं।

सूर्य का विकिरण प्रसार निरंतर है, अत: इसका प्रभाव हमेशा एक-सा रहता है। तथापि, चन्द्रमा का प्रभाव सौ गुना अधिक दृढ़ होता है, किन्तु सूर्य से बहुत अधिक भिन्न प्रकार का भी होता है। चन्द्र कलाओं का प्रभाव प्रकृति के साथ चेतन पर भी होता है।

सागर को प्राय: आन्तरिक शान्ति के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, क्योंकि इसकी गहराई सदैव गतिहीन और शान्त रहती है। तथापि पूर्ण चन्द्र के समय पर जब इसकी विकिरण सबसे अधिक दृढ़तम होती है, तब सागर भी गतिमान हो जाता है। ऊंची-ऊंची लहरें और भयंकर तूफान पूर्ण चन्द्रमा के एक दिन पहले या एक दिन बाद ही आते हैं। पशुओं और मानवों दोनों पर ही चन्द्रमा की इस कला का प्रभाव अनुभव होने लगता है। बिल्लियों, कुत्तों, भेडिय़ों, बाघों और कई मनुष्यों को पूर्ण चन्द्रमा रात्रि में बेचैन कर देता है। वे भावनात्मक रूप में प्रभावित होते हैं और सागर की लहरों की ही भांति व्यवहार करने लगते हैं। औरतों पर ज्यादा प्रभाव होता है। पूर्ण चन्द्रमा के दिनों में महिलाएं अधिक नाजुक, कुछ भावुक, कई बार हताश या निराश हो जाती हैं। चन्द्रमा स्त्री ऊर्जा सिद्धान्त का प्रतीक है और यही कारण है कि पूर्ण चन्द्रमा की अवधि में स्त्री की स्वाभाविक प्रवृत्ति गहनतर हो जाती है। तथापि भावना की इन अभिव्यंजनाओं का अर्थ शक्ति ह्रास नहीं अपितु ऊर्जा का और अधिक गहन प्रवाह ही है।

किन्तु पूर्ण चन्द्रमा के दिन बहुत से लोग अवसाद में क्यों डूब जाते हैं?

जो व्यक्ति अवसादग्रस्त हो जाते हैं, वे अपनी भावनाओं और ऊर्जा को बाहर प्रवाहित नहीं होने देते। उनकी ऊर्जा अवरुद्ध हो जाती है, अत: वे निराश, उपेक्षित और असहाय अनुभव करने लगते हैं। तथापि विशेष रूप से पूर्ण चन्द्र के दिन ही आन्तरिक शुद्धता प्राप्त करने का एक सुअवसर होता है। इन दिनों शक्तिशाली ऊर्जा जो हमारे अंदर होती है, ऊर्जा-अवरोधों को दूर कर सकती है और व्यक्ति में ऊर्जा स्वाभाविक प्रवाह में वापस आ जाती है। यह प्रक्रिया नाली या मार्ग के रूप में होती है, जिसमें बहुत सारी गन्दगी जमा हो जाती है और अवरुद्ध हो जाती है। इसको साफ करने के लिए व्यक्ति एक रबड़ का पाइप लेता है और इसे साफ करने के लिए पानी की तेज धार छोड़ता है, जो सारी गन्दगी अपने साथ बहा ले जाती है। इसी प्रकार चन्द्रमा की ऊर्जा भी अवरुद्ध भावनाओं और जटिलताओं पर प्रभाव डाल सकती है। जब हम मंत्र के दोहराने और उपवास से इस प्रभाव को सामर्थ्य प्रदान करते हैं तब हम अपने अन्त:करण (अंतर मन), बुद्धि, चेतना और अहम् भाव को शुद्ध करते हैं।

पूर्णिमा की रात्रि की भांति ही कृष्ण-पक्ष की रात्रि का अपना विशेष प्रभाव है। इस समय पूर्णिमा को होने वाले प्रभाव का पूरी तरह उल्टा प्रभाव होता है। सभी आन्तरिक हलचल और भावनाओं की भड़ास का दमन और निषेध हो जाता है। परमार्थ गतिविधियां इसे दूर कर सकती हैं और इन भावनाओं को दूर एवं शुद्ध कर सकती हैं। परमार्थ का अर्थ नि:स्वार्थ कर्म है-अन्य लोगों के लिए कुछ त्याग करना। उदाहरण के लिए व्यक्ति अपना आधा भोजन किसी अन्य जरूरतमंद को दे सकता है या जरूरतमंद पशुओं के लिए दान दिया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, जो केवल अपना है उसे किसी अन्य व्यक्ति को दे दिया जाता है।

अंधेरी, चन्द्रविहीन रात्रियों में कुछ खास कार्यकलाप हैं जिसे किसी को नहीं करना चाहिए। जैसे पौधों की कांट-छांट या किसी मकान के लिए नींव भरना। ऐसा इसलिए क्योंकि ये कर्म प्रकृति के नियम के विरुद्ध हैं। जब व्यक्ति इस कानून का अनजाने में भी उल्लंघन करता है, तो कार्य सामान्य रूप से विफल हो जाता है।

चन्द्रमा का चक्र निम्नलिखित प्रकार है :

यह चक्र पूर्ण चन्द्रमा के दिन से शुरू होता है किन्तु यह दिन गणना में नहीं लिया जाता। पूर्ण चन्द्रमा के बाद आने वाले पन्द्रह दिन 'अंधेरी रातों' (कृष्ण पक्ष) कहा जाता है। पूर्णिमा के अगले दिन से इसका प्रभाव पहले ही कम हो जाता है और यह 11वें दिन तक जारी रहता है। इन पिछले चार दिनों में चन्द्रमा का प्रभाव दूसरी ओर होने लगता है। पूर्णिमा के बाद पन्द्रहवें दिन चन्द्रमा आकाश में अदृश्य हो जाता है - यह 'चन्द्र की कृष्ण रात्रि' है। दो दिन बाद यह पुन: दीख पड़ता है, बहुत पतला 'नया चन्द्रमा' के रूप में। वास्तकिता में यह पहले दिन ही पुन: प्रकट हो जाता है, किन्तु इसका अर्द्व चन्द्र इतना पतला होता है कि हम इसको देख नहीं पाते। यह दूसरे दिन ही आँखों से सर्वप्रथम दिखाई देता है और फिर आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता जाता है। ये 'शुक्ल पक्ष की शक्तियाँ' हैं। ११वें दिन से पूर्ण चन्द्र के प्रभाव दिखाई देने लग जाते हैं और चन्द्र के कृष्ण पक्ष के बाद १५वें दिन चन्द्रमा पूरा होता है और चक्र पूरा हो जाता है। पूर्णिमा और अमावस्या के दिनों के अतिरिक्त चन्द्रमा के चक्र के दूसरे और ११वें दिन आध्यात्मिक उपवास के लिए सर्वोत्तम हैं, क्योंकि इन दिनों चन्द्रमा का प्रभाव बदलता है।

उपवास संकल्प शक्ति को विकसित और दृढ़ करने में सहायता करता है। यदि व्यक्ति वास्तव में कुछ प्राप्त करना चाहता है तो वह तब तक उपवास कर सकता है जब तक उसका उद्देश्य प्राप्त न हो जाए। बहुत से व्यक्ति कुछ विशिष्ट उपलब्धि के लिए शपथ लेते हैं कि जब तक उनका उद्देश्य पूरा नहीं होगा वे उपवास पर रहेंगे। मात्र संकल्प शक्ति के द्वारा ही अन्त में उनकी इच्छा भी पूरी हो जाती है। ठीक है, पूरे दिन कुछ भी नहीं खाने से व्यक्ति सहज ही भूखा हो जाता है। आप खाना चाहेंगे किन्तु इन्द्रियों की पुकार को आप इच्छा शक्ति से नियन्त्रित करेंगे, क्योंकि जितनी देर तक आपकी इच्छा मजबूत नहीं है आप कुछ मेवे, फल या दूध ले सकते हैं। तथापि उपवास न केवल इच्छाशक्ति का विकास करता है अपितु व्यक्ति इसके बिना भी कार्य करना सीख जाता है। व्यक्ति त्याग करना सीखता है। अत: इस दिन आपको चाहिए कि आप अपना भोजन अधिक जरूरतमन्द को दे दें।

उपवास के दिन व्यक्ति शारीरिक और मानसिक रूप से हल्का और तनावहीन महसूस करता है। आप अधिक आसानी से एकाग्र चित्त हो सकते हैं, चीजें स्पष्ट होती जाती हैं। आप अपनी ऊर्जा अधिक सचेत हुए इस्तेमाल कर सकते हैं और सही दिशा में लगा सकते हैं। जिन दिनों चन्द्रमा के प्रभाव में अन्तर आता है, उन दिनों (दूसरे और ११वें दिन) उपवास का शारीरिक और मानसिक रूप से शुद्ध करने का प्रभाव होता है, जिसके कारण ऊर्जा का सघन प्रभाव होता है।

आध्यात्मिक उपवास का अभ्यास

आपको आध्यात्मिक उपवास का दिन किस प्रकार प्रारम्भ, जारी रखना और अन्त करना चाहिए? चूँकि आप भलीभाँति जानते हैं कि आप एक खास दिन उपवास करेंगे, इसलिए आप कुछ अतिरिक्त खाद्य न खरीदें। उपवास के लिए आन्तरिक रूप से तैयारी हेतु अपने आपको उसी के अनुकूल कर लें। प्रात:काल एक मोमबत्ती या दीपक जलाएं। अपना प्रात:कालीन ध्यान करें और उसके बाद कुछ आसन। एक धार्मिक ग्रन्थ से एक अध्याय पढ़ें, फिर अपना दैनिक कार्य शुरू करें।

उपवास के पूरे दिन यह ध्यान में रखें कि आप अपने मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए उपवास कर रहे हैं। आप अपने उस वचन का ध्यान रखें जो आपने आज के दिन कुछ नहीं खाने का स्वयं को दिया है। भीतर आप प्रसन्नता अनुभव करेंगे और जब आप उपवास करने का अपना संकल्प पूरा करेंगे तो आपका आत्मविश्वास दृढ़तर हो जाएगा। सदैव सचेत रहें कि आज एक विशेष दिन है और अन्य व्यक्तियों से विशिष्ट मैत्रीपूर्ण और सार्थक व्यवहार करें। जब सायंकाल आप घर आएं पुन: हाथ-पैर धोयें, वस्त्र बदलें और प्रसाद तैयार करना शुरू करें। परम्परागत रूप से कुछ मीठा या दूध का पकवान होता है, जैसे खीर, हलुआ या इसी भांति कुछ और। इसी के साथ-साथ अपने और अपने परिवार के लिए सामान्य और सायंकालीन भोजन बनाना चाहिए। प्रसाद और भोजन दोनों ही प्रेम और सद्विचार और मंत्रों, आध्यात्मिक भजनों के गायन या गुनगुनाने के साथ तैयार किए जाते हैं। जब आप भोजन तैयार कर चुकें तब अपने ध्यान अथवा पूजा के स्थान पर फूल, फल और प्रसाद रखें। एक दीपक, मोमबत्ती या सुगंधित अगरबत्ती धूप जलाएं। प्रकाश परमेश्वर की उपस्थिति का द्योतक है। यह ज्ञान और बुद्धि को प्रस्तुत करता है। फूल, फल और सुगंध विश्व, ब्रह्माण्ड सत्शक्तियों की भेंट हैं।

फिर अपने आराध्य के समक्ष अकेले या सपरिवार या इष्ट-मित्रों सहित बैठ जाएं। भगवद्-गीता या बाइबल (या किसी अन्य धार्मिक ग्रन्थ) से कोई प्रवचन, अध्याय, पाठ पढ़ें। कोई भजन गाएं, फिर प्रार्थना करें। फिर निम्नलिखित मंत्र के साथ प्रसाद [1] वितरण करें :-

ॐ ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्‌।

ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥

"भेंट का कर्म ब्राह्मण है (ईश्वर)।

भेंट (खाद्य) ब्राह्मण है।

भेंटकर्ता ब्राह्मण है।

(पाचन) अग्नि भी ब्राह्मण है।

ब्राह्मण उन लोगों को प्राप्त होता है जो उसे सब कर्मों में पहचानते हैं।''

श्रीमद्भगवद्-गीता (4/24)

इसके पश्चात् आप सायंकालीन भोजन करें और इस प्रकार उपवास-दिवस का समापन करें।

आध्यात्मिक जिज्ञासु और योगीजन सदैव शाकाहारी जीवन बिताते हैं। इसका अर्थ है कि वे कभी मांस, मछली और अण्डे नहीं खाते। वे मद्यपान और मादक पदार्थों से परहेज करते हैं। यदि आप इस नियम का (अभी भी) पालन नहीं कर पाएं, तो कम से कम उपवासके दिन, सप्ताह में एक बार, या पूर्णिमा के दिन मास में एक बार तो ऐसा करने का प्रयत्न करें ही।

सारांश :

सिद्धान्त: यह सिफारिश की जाती है कि व्यक्ति सप्ताह में एक बार आध्यात्मिक उपवास करे। सोमवार चन्द्र दिवस है व भगवान शिव का दिन है। गुरुवार, बृहस्पति और आध्यात्मिक गुरू का दिन है। उपवास पूर्णिमा के दिन भी हर माह रखना चाहिए।

आध्यात्मिक उपवास (व्रत) वाले दिन भोजन न करने के अतिरिक्त यह भी अनिवार्य है कि पूरा दिन सार्थक, आध्यात्मिक मनोभावों से बिताया जाए। केवल इसी से निश्चय होगा कि उपवास का दिन आध्यात्मिक अभ्यास का दिन है और इसी से आध्यात्मिक विकास बढ़ेगा।

उपवास के दिन ठोस भोजन न लें और सायंकाल लगभग 5 बजे ही हल्का भोजन (यथा खीर, हलुआ, चावल, शाक-सब्जी) लें। यदि नियमों अथवा अन्य स्वास्थ्य कारणों से ऐसा करना संभव न हो, जैसे अत्यधिक दुर्बलता या सिर-दर्द अनुभव हो, तो आप थोड़ा दूध, फल या मेवे ले लें।

सहज रूप में आवश्यक होने पर जड़ी-बूटियों वाली चाय या पानी भी लिया जा सकता है।

यदि आपके स्वास्थ्य के कारण आप दिन भर का उपवास नहीं कर सकें, जैसे मधुमेह रोगी, तो सावधानीपूर्वक भोजन कम ले लें या एक भोजन न करें।