अवधि :
45-60 मिनट

चिदाकाश ध्यान (आन्तरिक आकाश पर ध्यान)

  • पद्मासन में बैठें। यदि संभव हो ध्यानावस्था में इसी स्थिति में बने रहें।

  • हाथ चिनमुद्रा में घुटनों या जांघों पर हैं।

  • ॐ का उच्चारण 3 बार करें।

  • ॐ की ध्वनि आपके चतुर्दिक को शुद्ध कर देती है। यह सभी स्तरों पर और हर क्षेत्र में आपकी रक्षा करती है, जहां तक आपकी चेतना फैलती है। यह आपके अस्तित्व के लिए एक संरक्षणात्मक आवरण का निर्माण करती है। ॐ सर्वत्र आपका मार्गदर्शन करता है और साथ देता है। ॐ का उच्चारण करते समय आप यही परिकल्पना करें।

  • यह महसूस करें कि ॐ की ध्वनि किस प्रकार मणिपुर चक्र से प्रारंभ होकर सहस्त्रार चक्र की ओर जाने के लिए उठती है, फिर प्रकाश धारा के रूप में संपूर्ण शरीर में प्रवाहित होती है, और अंत में सारे कक्ष में, इसे भरते हुए फैल जाती है।

  • ॐ उच्चारण करने के बाद, कुछ समय अपने शरीर पर एकाग्र हों और शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक दृष्टि से शाश्वत में अपने अस्तित्व के प्रति सचेत रहें। इस प्रक्रिया में आपका शरीर निश्चल हो गया है, मानों वह मूर्ति है। किन्तु आप और मूर्ति के बीच अंतर यह है कि आप जीवित हैं और श्वास लेते हैं।

  • अपने मंत्र के प्रति सचेत रहें। मंत्र-रहित ध्यान ऐसा ही है जैसे आत्मा-विहीन शरीर। मंत्र-सहित ध्यान सृजनशील और सजीव है। (यदि आपके पास किसी आध्यात्मिक गुरू का दिया हुआ कोई विशेष, निजी मंत्र नहीं है, तो आप "ॐ" या "सो हमं" जैसा सामान्य मंत्र उपयोग में ला सकते हैं।) मंत्र सभी विचारों, भावनाओं और अनुभूतियों को शुद्ध व शांत करता है। यह आपके मार्ग पर आपको संरक्षण प्रदान करता है। यह सभी बाधाओं को दूर करता है जिससे आपके आंतरिक 'स्व' को वह शक्ति प्राप्त होती है कि आप दैवीय आयाम में अपना मूल्यांकन कर सकते हैं।

  • यह महसूस करें कि श्वास आपके संपूर्ण शरीर में किस प्रकार प्रवाहित हो रहा है। यह पूरी तरह सामान्य और सहज रूप से चल रहा है। हर श्वास का ब्रह्माण्ड और आपके शरीर, चेतना और भौतिक वस्तु के बीच संबंध है। श्वास के समन्वय के साथ आपके शरीर का फैलाव और संकुचन महसूस करें।

  • आपकी आत्मा प्राण है, दिव्य ऊर्जा है। कक्ष में, प्राण के रूप में दिव्य आत्मा की मौजूदगी के प्रति सचेत रहें। प्राण आपके पूरे शरीर में प्रवाहित होता है- इसको अपनी त्वचा पर एक अच्छा स्पंदन के रूप में महसूस करें।

  • अब आप अपने आन्तरिक आकाश में गहरी डुबकी लगायें। अपने आन्तरिक स्व को महसूस करें। आप आज्ञा चक्र, विशुद्धि, अनाहत या मणिपुर चक्र में से जिस किसी को स्पष्ट रूप से महसूस कर सकें उस पर ध्यान एकाग्र करें। अपनी बुद्धि और मन को कुछ पलों के लिए शान्त कर दें और आपके आन्तरिक स्व को आपका मार्गदर्शन करने दें। अपने आपको पूरी तरह इस पर विश्वास कर छोड़ दें।

  • प्रतिमाओं, विचारों, भावनाओं में से हर एक के साथ 3-4 मिनट तक रहें।

    • आपके आन्तरिक आकाश का फैलना जारी है। यह अनन्त, असीम और समयातीत है। हर वस्तु को निर्बाध प्रवाहित होने दें, किन्हीं विशेष विचारों और भावनाओं से चिपके न रहें।

    • अपनी चेतना को दूसरे स्तर तक ऊपर उठायें और अपने आन्तरिक स्व द्वारा स्वयं का मार्ग दर्शन करना जारी रखें।

    • अब आप उस चतुर्दिक में हैं जिसे आप अपने समक्ष देखते हैं।

    • आप एक झील के किनारे खड़े हैं जो एक आश्चर्यजनक, अछूते दृश्य में एक गहरे नीले आभूषण में जड़ी हुई दिखाई देती है। झील पर बड़ी हरी पत्तियों के साथ खिले हुए सफेद कमल तैर रहे हैं। झील के मध्य में एक छोटे द्वीप पर एक सफेद संगमरमर का मंदिर खड़ा है। इसका गुम्बद जल के ऊपर बहती हुई एक बड़े कमल की कली के समान दिखाई देता है।

    • एक संकरा, लगभग अर्द्व पारदर्शी सफेद संगमरमर का पुल किनारे से मंदिर की ओर जाता है। आहिस्ता से और प्रसन्नचित हृदय से आप मंदिर की ओर जाने के लिए पुल पर आगे बढ़ जाते हैं। आपका कदम नरम और हल्का है- अब आप पानी के ऊपर तैरते हैं या एक कमल पंखुड़ी से दूसरी कमल पंखुड़ी पर नीचे उतरते हैं, तब फिर से आप अपने पैर के नीचे पुल के चिकने संगमरमर को अनुभव करते हैं।

    • आपकी वेशभूषा कमल के समान ही शुभ्र और शुद्ध है और आपके हाथों में एक सुन्दर पुष्प अपने आराध्य वेदिका को उपहार स्वरूप देने के लिए लिया हुआ है। अब आप मंदिर की सीढिय़ों तक पहुंच गये हैं। आपके चहुँ ओर प्रत्येक वस्तु नीली और सफेद है- आकाश और झील गहरे नीले झिलमिला रहे हैं। कमल खिलता है, मंदिर और आप विशुद्ध श्वेत हैं।

    • आप मंदिर में प्रवेश करते हैं, यह आपका आन्तरिक मंदिर है-आपके आध्यात्मिक आकार का मंदिर। एक सुन्दर और कोमल ध्वनि कमरे में गुंजायमान हो जाती है, वातावरण संगीत और स्पंदनयुक्त बन गया है। मंदिर में झिलमिलाता प्रकाश आपके चारों ओर स्थित है; इसमें आप एक झिलमिलाता आकार पहचानते हैं- आपकी आत्मा।

    • आप अपनी अन्तर्दृष्टि से अपनी दिव्य आत्मा का झिलझिलाता आकार देखते हैं और आप उसे पुष्प भेंट करते हैं।

    • पूरा मंदिर प्रकाश शक्ति और शान्ति से भर गया है। आप ध्यान लगाने के लिए वेदिका के सम्मुख बैठ जाते हैं, आपका हृदय कृपा, आभार, प्रेम और भक्ति से भर गया है। आप ईश्वर की अनुकम्पा और भव्यता के लिए प्रार्थना करते हैं। ध्यान में बैठे हुए आप स्वयं को देखते हैं जो झिलमिलाते श्वेत प्रकाश से घिरा हुआ है।

    • आप कमल की कली के समान हल्के और सुन्दर हैं। इस आकार में स्वयं को भिगोयें, कमल के सर्वाधिक आन्तरिक भाग में डुबकी लगायें। आपके समक्ष आपके हृदय का आकाश अपनी अनंत गहराई में खुल जाता है। आप अपने आन्तरिक स्व में घुल जाते हैं। आप अपने स्व की आवाज सुनते हैं, जो आपको इस संसार में आपके कार्य की घोषणा करती है।

    • अब आप समझ जाते हैं कि आप कौन हैं और आपके जीवन का उद्देश्य क्या है। इस अनुभव को और ज्ञान को अपने भीतर बहुत गहरा आत्मसात कर लें। अपने संपूर्ण अस्तित्व को इसमें आत्मसात हो जाने दें। श्रद्धा, कृतज्ञता और प्रेम से अपनी दिव्य आत्मा के समक्ष झुक जायें।

    • अब आप स्वयं को अपने आन्तरिक आकाश से अलग कर लें। आप पुन: आपके चारों ओर मंदिर से परिचित होते हैं। आप वेदिका के सम्मुख झुकते हैं, खड़े होते हैं और जैसे आप आये थे वैसे ही चुपचाप, हल्के कदमों से मंदिर को छोड़ देते हैं। आप मंदिर से बाहर आ जाते हैं, सीढिय़ों से नीचे उतरते हैं और झील के किनारे तक पहुंचने के लिए पुल से नीचे की ओर जाते हैं अथवा वापस तैरकर जाते हैं।

    • यह स्मृति आपके अन्दर उज्ज्वल रूप में बनी रहती है। आपके अन्दर आप स्फटिक मंदिर का चित्र, वेदिका और उस उज्ज्वल आकार को, जिसे आपने देखा था, उन सभी को आप संजो लेते हैं। आपके भीतर स्व का विशुद्ध श्वेत कमल खिल जाता है। आप जहाँ कहीं जाते हैं, अपने भीतर कार्य के ज्ञान को ले जाते हैं। आपका अस्तित्व, आपके विचार, शब्द और कर्म आपके आन्तरिक खिले कमल की पंखुडिय़ों के समान खुल जाते हैं।

    • आप अपने आपको फिर उसी कमरे में पाते हैं जिसमें आप ध्यान लगाते हैं। आप प्रसन्न और विशुद्ध अनुभव करते हैं, गहरी शान्ति और आध्यात्मिक शक्ति से परिपूर्ण हैं।

    • भगवान के आशीर्वाद को महसूस करें और उनको उस छोटी-सी अवधि के लिए धन्यवाद दें जिसमें आप ईश्वर की उपस्थिति में उन्हीं के साथ रह सके थे।

    • ध्यान के बाद तीन बार 'ॐ' का उच्चारण करें और फिर मंत्र कहें :

      नाहमं कर्ता

      प्रभुदीप कर्ता

      महाप्रभु दीप कर्ता ही केवलं

      ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:

      मैं कर्ता नहीं हूँ

      प्रभु दीप कर्ता है

      केवल महाप्रभु दीप ही कर्ता है।

      ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:

  • अपने दोनों हाथों की हथेलियों को आपस में रगड़ें, उनको अपने चेहरे पर रखें एवं अपनी आंखों, पलकों तथा चेहरे की मांसपेशियों को गरम करें। हथेलियों को इकट्ठा लाएं एवं दिव्य स्व के समक्ष प्रेम व आभार प्रकट करते हुए नमन करें। अपने नेत्र खोलें।

निर्गुण ध्यान (निराकार पर ध्यान लगाना)

  • तीन बार ॐ उच्चारण करें।

  • "ॐ" उच्चारण की अवधि में ॐ की ध्वनि पर ध्यान दें। नाभि से गले तक ॐ का स्पन्दन महसूस करें। सिर से यह स्पंदन आपके पूरे शरीर में प्रवाहित हो जाता है। यह आपके चहुँ ओर एक सुरक्षा कवच बना देता है। इस सुरक्षा कवच का आभास करें।

  • निम्नलिखित प्रतिमाओं, विचारों या भावनाओं में से प्रत्येक के साथ 3-4 मिनट रहें।

    • स्वयं को सचेत कर लें कि दिव्य आत्मा आपके भीतर ही निवास करती है। आपकी आत्मा उस दिव्यात्मा (प्रकाश) की एक चिंगारी है जो सभी जीवधारियों में विद्यमान है। जिस प्रकार एक बीज में वृक्ष के सभी गुण समाहित होते हैं, उसी प्रकार आत्मा में भी परमात्मा के सभी गुण विद्यमान होते हैं। परमात्मा की प्रकृति सत चित आनंद है : सत्य, सचेतन और परमानंद। ये वे गुण हैं जो आपके हृदय तक गहरे विद्यमान होते हैं।

    • अब स्वयं से कहें "मैं अपने आन्तरिक स्व के साथ एक हो जाऊँ"।

    • कोई एकाग्रता नहीं, कोई कल्पना नहीं, कोई दृश्य नहीं। स्वयं को बौद्धिक विचारों, कल्पनाओं से अलग कर लें। दिनभर आप किसी काम में व्यस्त रहते हैं, अब आप स्वयं को आंतरिक रूप में स्वतंत्र और परमात्मा में लीन करें।

    • अपनी चेतना के अनन्त आकाश में अपनी उपस्थिति महसूस करें।

    • यदि आपकी भावनाएं, विचार या चित्र भी मानस पटल पर उभर जाते हैं, तब भी केवल एक पर्यवेक्षक ही बने रहें। इसे पूर्णतया एक सहज, स्वाभाविक रूप में स्वीकार कर लें। स्वयं को विचलित या परेशान न होने दें। इनको सहज रूप में ऐसे ही अलग कर दें जैसे आप रात को अपने वस्त्र बदल लेते हैं। जिस प्रकार पहले आप कोट उतारते हैं, फिर सिर का पटका (स्कार्फ), स्वेटर आदि। उसी प्रकार, आप स्वयं को कल्पनाओं, निर्णयों और आन्तरिक तर्कों से स्वतंत्र कर लें।

    • तनावहीन हो जायें और परमानन्द की अनुभूति करें। कोई कल्पना नहीं, केवल गहरी तनावहीनता ही महसूस करें स्वयं को पूर्णत: स्वतंत्र महसूस करें-सभी कार्यों से स्वतंत्र सभी उत्तरदायित्वों से स्वतंत्र, अपने अति सूक्ष्म अहम् और इसकी सभी अच्छाइयों और इच्छाओं से, इसके विचारों और अनुभूतियों से स्वतंत्र।

    • स्वयं को ईश्वर के हाथों में सौंप दें। ईश्वर की इच्छा ही आपकी इच्छा है। ईश्वर की कृपा दृष्टि ही आपकी कृपा दृष्टि है। आप ईश्वर में और ईश्वर आप में है।

    • अनन्त में गहरे डूब जायें और स्वतंत्रता व शान्ति महसूस करें। यह महसूस करें कि आप अकेले नहीं हैं। दिव्य आत्मा सभी स्तरों पर आपके साथ है। स्वयं को पूरी तरह प्रसन्न और स्वतंत्र अनुभव करें।

    • किसी पिंजरे में बंद एक कबूतर की कल्पना करें। प्रेम से आप इसके पिंजरे का दरवाजा खोल दें और उसे स्वतंत्र कर दें। देखें कि यह किस प्रसन्नता से सुविस्तृत आकाश में उड़ जाता है।

    • अब यथार्थ रूप में उसी प्रकार से अपने आन्तरिक स्व को स्वतंत्र कर लें। इसे उडऩे दें, प्रकाश में ऊंचा चढऩे दें और उसी के साथ एक हो जाने दें। अनन्त और परम सत्य - यही सच्ची स्वतंत्रता है।

    • आप ऊर्जा और प्रकाश की किरणों से परिचित हैं जो आपके आन्तरिक आकाश की गहराइयों से आती है और बाहर की ओर प्रस्फुटित होती है। आपके हृदय में परमानन्द की एक अनुभूति विद्यमान है। आप अनुभव करते हैं कि ईश्वर ही प्रेम है और प्रेम ही ईश्वर है।

    • अपने हृदय में परमानन्द महसूस करें, स्वयं को पूरी तरह स्वतंत्र, शुद्ध और स्पष्ट महसूस करें। आप अपने स्व से सचेत हैं और इसके साथ-साथ हर वस्तु से जुड़े भी हैं। सिर्फ अपने आपको (स्वयं) तल्लीन कर दें। आत्मा के स्पंदन और प्रकाश में, उस दिव्य आत्मा में जो आपके भीतर रहती है और आप से प्रस्फुटित है।

    • अपने स्व से संबंध को महसूस करें और अपने आकाश में स्वयं को तल्लीन करना जारी रखें। आपकी चेतनता अनन्त में फैल जाती है। ईश्वर की अनुभूति करें, ईश्वर की सर्वविद्यमानता एवं अपरिमित अनुकम्पा और शक्ति को भी।

    • अब पुन: अपने शरीर की ओर लौट आएं और यह कृतज्ञता व्यक्त करें कि आप को यह अनुभव प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इस कृतज्ञता में सचेत रहें कि आपकी आत्मा उस दिव्यात्मा का ही एक भाग है। सच्चे प्रेम व ऐक्य के सार के रूप में परमानंद को पहचानें।

    • ईश्वर से यही याचना करें कि वह अपनी कृपा के रूप में इसी परमानंद की दिनों-दिन वृद्धि करे। ईश्वर सभी प्राणियों को यह अनुभूति प्रदान करने में सहायता करे कि आपके माध्यम से सभी को शांति, सुख तथा प्रसन्नता प्रवाहित हो।

    • इस कक्ष में अपनी उपस्थिति, अपना शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक अनुभव महसूस करें। यह कमरा एक विस्मयकारी स्पंदन और तेजस्वी प्रकाश-पुंज से भरा हुआ है जो आपके आतंरिक स्व (आत्मा) से प्रस्फुटित हो रहा है।

    • अंत में ॐ का तीन बार उच्चारण करें और फिर मंत्र कहें :

      नाहमं कर्ता

      प्रभु दीप कर्ता

      महाप्रभु दीप कर्ता ही केवलं

      ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:

      मैं कर्ता नहीं हूं

      प्रभु दीप कर्ता है

      केवल महाप्रभु ही कर्ता है।

      ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:

  • पने दोनों हाथों की हथेलियों को परस्पर रगड़ें, उन्हें अपनी आंखों पर रखें, आंखों और चेहरे की मांसपेशियों को गरम करें। दिव्यात्मा के सम्मुख अनुग्रह व श्रद्धा के भाव से नमन करें और अपनी आंखें खोलें।

हमें जीवन में जिस सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त का निरीक्षण करना चाहिये वह है : हम अपने विचारों, शब्दों या कर्मों से किसी को दु:ख या कष्ट न पहुंचायें। कर्म के सिद्धान्त के अनुसार हम जो कुछ करते हैं, उसका प्रतिफल हमें मिलता है। परोपकारी और अच्छे कर्मों का परिणाम समान रूप से अच्छाई में उसी प्रकार प्राप्त होता है जैसा हम दूसरों को दु:ख, दर्द या चोट पहुंचाने पर दु:ख व समस्याओं को पाते हैं।