प्रारंभिक स्थिति :
ध्यान मुद्रा।

ध्यान दें :
कंठ में श्वास के प्रवाह पर।

उज्जायी प्राणायाम स्वर यंत्र में श्वास के प्रवाह पर ध्यान एकाग्र कर गहरी श्वास लेना है। गहरी निद्रा में इस प्रकार की श्वास प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से होती है किन्तु इसके पूरे लाभ प्राप्त करने के लिए पूरी तरह सचेत रहते हुए इसका अभ्यास करना महत्त्वपूर्ण बात है।

उज्जायी प्राणायाम सहज प्राणायाम या अजय प्राणायाम ("सहज" श्वास नियन्त्रण) भी कहलाता है। इसका उपयोग क्रिया योग और ध्यान में किया जाता है। योग ग्रन्थों में कहा गया है कि सहज श्वास समाधि प्राप्ति का मार्ग है या अन्य शब्द में कहा जाये तो चेतना के उच्चतर स्तर की प्राप्ति का मार्ग है। सहज श्वास का अर्थ मंत्र "सो हम" के साथ श्वास लेने की सहज प्रक्रिया पर ध्यान एकाग्र करना है। यह मंत्र अपने अन्दर के स्व को पुकारने के समान है। इस मंत्र के लगातार उच्चारण से "सो और हम" शब्द का एक चक्र बन जाता है : मैं वह हूँ - वह मैं हूँ - मैं वह हूँ...।

उज्जायी प्राणायाम शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बनाये रखने में बहुत सहायक है। यह उच्च रक्तचाप को सामान्य करता है और परिणामत: एक गहन शारीरिक और मानसिक शुद्धिकरण होता है। अश्विनी मुद्रा या मूल बंध के साथ उज्जायी प्राणायाम का अभ्यास नकारात्मक विचारों, मानसिक पीड़ा व उदासीनता को कुछ ही क्षणों में दूर कर देता है। यह ठीक से न हजम हुये पदार्थों या बिगड़े हुये खाद्यान्न से उत्पन्न उदर-वायु, पाचन की समस्या और जी मिचलाने के मामले में अलाभकारी होता है। उज्जायी प्राणायाम प्रदूषण के हानिकारक परिणामों और अन्य हानिप्रद पर्यावरणीय प्रभावों को दूर करता है।

सर्वाधिक सघन या गहन विषहरण गुण की प्राप्ति तब होती है जब उज्जायी प्राणायाम का अभ्यास नासिका से पूरक करने और मुख से रेचक से कि या जाता है। इस तकनीक को भुजंगनी प्राणायाम "सर्प श्वास" कहा जाता है।

पुराणों* में [1] एक कथा है जो उज्जायी प्राणायाम के प्रभाव को दर्शाती है।

देवों और असुरों ने निश्चय किया कि महासागर के अथाह जल में विद्यमान विशाल कोष को प्राप्त करने के लिये इसका मंथन किया जाये। इस प्रयोजन के लिये उन्होंने मन्दाकिनी पर्वत को मथानी और वासुकी नाग को रस्सी के रूप में इस्तेमाल किया। देवों ने सर्प की पूंछ को पकड़ लिया और असुरों ने इसके सिर को। समुद्र तल से भिन्न-भिन्न वस्तुएँ निकलीं, सर्वप्रथम देवी लक्ष्मी निकली और अंत में अमरता का पेय अमृत एक स्वर्ण पात्र में सतह पर आ गया किन्तु इस अमृत पेय के साथ एक महा विनाशकारी विष भी आया। यह विष समस्त ब्रह्माण्ड को नष्ट कर सकता था। देव और असुर इस विष के प्रभाव को रोकने में असमर्थ थे। हताश होकर उन्होंने भगवान शिव से सहायता मांगी। शिव ने विष को बिना निगले ही पी लिया किन्तु इसे अपनी योग शक्ति से विशुद्घि चक्र में रख लिया। यहां उन्होंने उज्जायी प्राणायाम और जालंधर बन्ध के माध्यम से इसको शुद्ध कर दिया। इस प्रकार उन्होंने संसार को इस महा विनाशक खतरे से मुक्त किया और बचा लिया। इसके परिणाम स्वरूप उनका कंठ सदा के लिये गहरा नीला पड़ गया और तब से शिव का नाम नीलकंठ भी हो गया।

दोहराना :
3 से 5 चक्र।

अभ्यास :
चेहरे, निचले जबड़े और होठों को ढीला छोड़ दें। > जालन्धर बंध करें। > कंठ द्वार को सिकोड़ें जिससे श्वास के साथ एक धीमी ध्वनि उत्पन्न हो। कंठ में श्वास के प्रवाह को महसूस करें।> पूरक करते हुए मानसिक रूप से "सो" शब्द को दोहरायें और श्वास की चेतनता को नाभि से कंठ तक अनुसरण करें। > रेचक करते हुए मानसिक रूप से "हम" शब्द को दोहरायें और कंठ से नाभि तक श्वास चेतनता का अनुसरण करें। > कई श्वासों के बाद खेचरी मुद्रा करें अर्थात् यथा संभव कोमल तालु की ओर पीछे जिह्वा को मोड़कर ले जायें। इससे वायु नम हो जाती है और गला सूखता नहीं है। यदि यह मुद्रा असुविधाजनक हो जाये तो जिह्वा को कुछ क्षण के लिये आराम दें और फिर खेचड़ी मुद्रा में लौट आयें। > नियमित और निरन्तर श्वास लेना जारी रखें। इस प्रकार पूरक और रेचक 25 बार करें, फिर जालंधर बंध खोल दें और लगभग तीन मिनट तक सामान्य श्वास के साथ ऐसे ही बने रहें।

यह एक चक्र है। इस व्यायाम को आगे 3-5 बार करें।

लाभ :
रक्तचाप को विनियमित करता है और शरीर को विषहीन बनाता है। पूरे शरीर में आक्सीजन की आपूर्ति बढ़ाता है। पाचन समस्या, उदर वायु, जी मिचलाने में लाभदायक होता है। हानिप्रद पर्यावरणीय प्रदूषणकारी तत्वों को निष्प्रभावी बनाता है।