ध्यान दें :
संबद्ध चक्र की स्थिति या पूर्ण शरीर पर।

श्वास :
शारीरिक क्रिया के साथ समन्वय या मुद्रा में सामान्य श्वास।

प्रारंभिक स्थिति :
खड़े रहें (दोनों टांगों को मिलाकर)।

दोहराना :
2-12 बार (चक्र)।

अभ्यास :
दोनों टांगों को एक साथ मिलाकर खडे हों और सम्पूर्ण शरीर पर ध्यान केन्द्रित करें।

  1. दोनों हथेलियों को छाती के सामने लायें।

  2. पूरक करते हुए बाजुओं को समानान्तर रखें, और उनको सिर के ऊपर उठायें। हथेलियां सामने की ओर रहेंगी। सामने देखें।

  3. रेचक करते हुए तब तक आगे झुकें जब तक कि हथेलियां या अंगुलियां पैरों के पास फर्श को छू न ले। इसमें जो भी संभव हो करें। घुटने सीधे रहेंगे।

  4. पूरक करते हुए बायां पैर पीछे दूर तक ले जायें और घुटने को फर्श पर टिका दें। बायें पैर की अंगुलियां नीचे की ओर मुड़ी हुई रहेंगी। दायां पैर हाथों के बीच में रहेगा जिसमें पैर का तलवा फर्श पर सपाट रहेगा। ऊपर देखें।

  5. रेचक करते हुए दायें पैर को वापस बायें पैर के निकट लायें, नितम्बों को ऊपर उठायें और टांगों को सीधा करें। नाभि की ओर देखें। दोनों पैरों के पंजे फर्श पर समतल सपाट रहेंगे। शरीर का भार हाथों और पैरों पर समान रूप से आ जाता है। कूल्हे ऊपर उठ जाते हैं जिससे शरीर एक पर्वत जैसा दिखाई देता है।

  6. श्वास रोकते हुए घुटनों, ठोडी और छाती को फर्श पर लायें। पंजे मुड़े हुए होंगे और कूल्हे फर्श से ऊपर उठे होंगे। पूरे शरीर पर ध्यान दें। बाजू मुड़े होंगे जिनमें कोहनियां मुड़ी हुई होंगी और हाथ कंधों के नीचे होंगे।

  7. पूरक करते हुए कूल्हों को फर्श पर दबायें और रुण्ड को सीधा तानकर उठायें (भुजंगासन)। पैर फर्श के साथ समतल रहेंगे और हाथ कंधों के नीचे रहेंगे।

  8. रेचक करते हुए पंजों को नीचे की ओर मोड़ें और नितम्बों को ऊंचा उठायें। टांगों को सीधा करें और नाभि की ओर देखें। दोनों पैरों के तलवे फर्श पर समतल सपाट रहेंगे। शरीर का भार हाथों और पैरों पर समान रूप से पड़ता है।

  9. पूरक करते हुए एक लम्बे पग के साथ बायां पैर आगे लायें, दायें घुटने को फर्श पर रखें और दायें पैर की अंगुलियों को नीचे की ओर मोड़ें। बायां पैर हाथों के बीच में है। पैर का तलवा फर्श पर समतल सपाट है। ऊपर देखें।

  10. रेचक करते हुए बायें पैर को दायें के पास रखें और टांगों को सीधा रखें। शरीर का ऊपरी भाग नीचे की ओर लटकता है। हथेलियां या अंगुलियां फर्श को छूती हैं। घुटने सीधे रहते हैं।

  11. पूरक करते हुए दोनों बाजुओं को समानान्तर रखें, उनको सिर के ऊपर उठायें और ऊपर देखें।

  12. रेचक करते हुए हाथों को छाती के स्तर तक प्रार्थना की स्थिति में ले आयें और प्रारंभिक स्थिति में लौट आयें।

  • इन 12 स्थितियों से एक चक्र बनता है। अगले चक्र में दायीं टांग को स्थिति 4 में पीछे ले जायें और स्थिति 9 में आगे लायें। हर चक्र में टांगों को अदल-बदल कर लें।

सूर्याय नम: मंत्र और चक्रों पर ध्यान एकाग्रता के साथ

सूर्य प्रकाश शुद्वता, स्पष्टता और चेतनता का प्रतीक है। सूर्याय नम: का नित्य, नियमित अभ्यास सूर्य की शक्ति और तेजस्विता प्रदान करता है, इसलिए यह "सूर्य को प्रणाम" (सूर्य नमस्कार) के नाम से जाना जाता है।

सूर्याय नम: मंत्र का उच्चारण या मन में पुन: स्मरण प्रत्येक मुद्रा के बदलने से पहले प्रत्येक चक्र पर विशेष ध्यान देते हुए भी किया जाता है।

स्थितिमंत्रध्यान / एकाग्रता
1 ॐ मित्राय नम: अनाहत चक्र
2. ॐ रवये नम: विशुद्धि चक्र
3. ॐ सूर्याय नम: मणिपुर चक्र
4. ॐ भानवे नम: अनाहत चक्र
5. ॐ खगाय नम: सहस्रार चक्र
6. ॐ पूष्णे नम: पूर्ण शरीर
7. ॐ हिरण्यगर्भाय नम: स्वाधिष्ठन चक्र
8. ॐ मारिच्ये नम: सहस्रार चक्र
9. ॐ सावित्रे नम: अनाहत चक्र
10. ॐ अर्काय नम: मणिपुर चक्र
11. ॐ आदित्याय नम: विशुद्धि चक्र
12. ॐ भास्कराय नम: अनाहत चक्र

सभी स्थितियों के अलग अलग लाभ

  • स्थिति 1 + 12 :

    ध्यान, चित्त एकाग्र करने की योग्यता में सुधार करता है और नाड़ी तंत्र और मन को शान्त करता है। अनाहत चक्र सन्तुलित रहता है।

  • स्थिति 2 + 11 :

    शरीर का सामने का हिस्सा खुलता है और फैलता है, जिससे रक्त संचार संवर्धित होता है। विशुद्धि चक्र उदीप्त हो जाता है, चिरकालिक, पुरानी गले की समस्याओं में लाभदायक है।

  • स्थिति 3 + 10 :

    पीठ की मांसपेशियों और जंघाओं की पीछे की मांसपेशियों को फैलाता है। यह सूर्य चक्र और मणिपुर चक्र को सक्रिय करता है। पाचन तंत्र उदीप्त हो जाता है। सिर को रक्त की अच्छी आपूर्ति प्राप्त होती है, जिसका आंखों, कानों व स्मरण शक्ति पर हितकारी प्रभाव होता है।

  • स्थिति 4 + 9 :

    जांघ पर दबाव पाचक अंगों को उदीप्त करता है। टांग व पीठ की मांसपेशियां मजबूत होती हैं। अनाहत चक्र, सूर्यचक्र और मणिपुर चक्र संतुलित होते हैं।

  • स्थिति 5 + 8:

    नाड़ी तंत्र को विनियमित करता है। बाजू, टांग और पीठ की मांसपेशियों और टांगों की पीछे की मांसपेशियों को फैलाता है। सिर को बढ़ी हुई रक्तापूर्ति का बौद्धिक कार्यों, आंखों और कानों पर लाभदायक प्रभाव होता है और यह सहस्रार चक्र को प्रेरित करता है।

  • स्थिति 6 :

    यह पेट (मध्य पेट) की श्वास को प्रोत्साहित करता है। रीढ़ को फैलाता है और पेट के नीचे के अंगों के लिए लाभदायक है। यह पूरे शरीर को सन्तुलित करता है।

  • स्थिति 7 :

    यह बाजू, कन्धा और पीठ की मांसपेशियों को मजबूत करता है। यह रीढ़ की लोच को बढ़ाता है और मुद्रा में सुधार लाता है, जिससे खिसकी चकतियों (स्लिप डिस्क) के बचाव में सहायता मिलती है। यह पाचक कार्यों को उद्दीप्त करता है। स्वाधिष्ठन चक्र सन्तुलित रहता है।

लाभ :
रक्त संचार में वृद्धि करता है। शारीरिक दक्षता, ध्यान एकाग्र करने की योग्यता, मानसिक स्थिरता और आध्यात्मिक विकास में सुधार लाता है।

सावधानी :
उच्च रक्तचाप या सिर चकराने की स्थिति में इस तारत्म्य से बचें।

इस व्यायाम के बाद आनंदासनमें आराम करें।

आसन इन निम्नलिखित श्रेणियों में शामिल किया जाता है:
रक्त संचार बढ़ाने हेतु आसन और व्यायाम
अवसाद के लिए आसन और व्यायाम